वैक्सीन लगाने में अभी भी डर झिझक ,ऐसा ये पहली बार नही…

वैक्सीन लगाने में अभी भी डर झिझक ,ऐसा ये पहली बार नही…

– : – कोरोना का वैक्सीन लगवाने को लेकर लोगों में अभी भी हो रहा डर झिझक देखने में आ रही है। ऐसा पहली बार नही हो रहा है । सदियों से लोगों में किसी भी नई दवाई विशेषकर वैक्सीन के इस्तेमाल को लेकर डर और झिझक देखी जाती रही है । इसका कारण क्या है और वैक्सीन से जुड़ी अन्य जरूरी बातों के बारें में जानने आयुर्वेद के इतिहास में पीएचडी डॉ. पी वी रंगनायकुलु से जानकारी ली

है वैक्सीन

वैक्सीन को लेकर डर को समझने के लिये जरूरी है पहले यह समझा जाय की वैक्सीन क्या है। यह एक ऐसा दवाई है जिसका उपयोग एंटीबॉडी के उत्पादन को प्रोत्साहित करने और शरीर में किसी विशेष बीमारी के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रदान करने के लिए किया जाता है। यह वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा किसी रोग के प्रेरक एजेंट, उसके उत्पादों, या एक सिंथेटिक विकल्प से तैयार की जाती है, जो रोग को प्रेरित किए बिना एंटीजन के रूप में कार्य करता है। ये सिर्फ कोरोना ही नही बल्कि किसी भी रोग में टीकाकरण के माध्यम से शरीर में संबंधित बीमारी के लिये एंटीबॉडी के निर्माण का कार्य करता है।

नयी बात नही है वैक्सीन को लेकर लोगों के मन में संशय

डॉ. रंगनायकुलु बताते हैं की वैक्सीन को लेकर लोगों के मन में डर या संशय होना कोई नई बात नही है। 1790 के दशक में ग्लूस्टरशायर, इंग्लैंड के एडवर्ड जेनर ने चेचक का टीके की खोज की थी । जिसने लाखों लोगों को मृत्यु के जोखिम से बचाया था। हालांकि जब 19वीं शताब्दी की शुरुआत में इस तकनीक को भारत लाया गया तो लोगों ने विभिन्न, संदेहों, भ्रमों और अफवाहों के चलते टीकाकरण कराने से इनकार कर दिया था । ऐसे में उस समय के कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने एक रास्ता निकाला और उन्होंने एक संस्कृत विद्वान को गाय के थन से चेचक के टीके के निर्माण की विधि का वर्णन करते हुए संस्कृत में एक आलेख लिखने के लिए कहा। बाद में जब इस संस्कृत ‘संदर्भ’ को आयुर्वेद के साहित्य में उल्लेखित किया गया जिससे लोगों को यह विश्वास हो सके कि यह तकनीक स्वदेशी है।

बैक्टीरियोलॉजी और जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में चरण डर चरण होती प्रगति के फलस्वरूप 1930 के दशक में डिप्थीरिया, टेटनस, एंथ्रेक्स, हैजा, प्लेग, टाइफाइड, तपेदिक, और अधिक के खिलाफ एंटीटॉक्सिन और टीके विकसित किए गए।

हालांकि, वैक्सीन को संजीवनी बूटी नही माना जा सकता है ,अर्थात यह जरूरी नही है की वैक्सीन हमेशा शरीर में रोग के लिये सुरक्षा तैयार करने में सफल हो। डॉ. रंगनायकुलु बताते हैं की वर्ष 1955 में अमेरिका के कटर में टीकाकरण के कारण हुई एक दुर्घटना ने वैक्सीन के अस्तित्व को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया था । दरअसल इस दुर्घटना में वैक्सीन के रूप में निष्क्रिय किए गए वायरस के स्थान पर गलती से, अमेरिका में हजारों बच्चों में जीवित वायरस का इंजेक्शन लगा दिया गया था। जिसके चलते बड़ी संख्या में लोगों में संबंधित बीमारी विकसित हो गई वही इस कारण कुछ की मृत्यु भी हो गई।

यहीं नही ऐसे बहुत से अनगिनत कारण हैं जिनके कारण न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया में 5-10% लोग टीके लगवाने से इनकार करते हैं । वहीं 60% आबादी टीकों की सफलता के प्रतिशत तथा उनकी जरूरत जानने के बाद ही टीका लगवाने के लिये सहमत होती है। बाकी, 30 से 35% लोग आसानी से टीकों को स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि वे विज्ञान में विश्वास करते हैं।

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